काट्यांच एक बरं असतं,
कधीतरी टोचणार माहित असतं,
शब्दांचे खेळ मात्र निराळे,
कधी केव्हा बोचणार माहित नसतं।
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कसे हे नियतीचे असे ऊन सावलीचे खेळ
काळ सोकावला होता अन् आली होती वेळ।
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दे जन्म मला या मात्रुभुमीच्या पोटी
पुन्हा पुन्हा मरण्यासाठी।
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काय बोलु आता मी शब्द माझे संपु लागले,
तुझ्या अबोल्याने मनाचे बांध हे तुटू लागले।
कळेल का  तुला कधी हि मुकी स्पंदने
म्हणुनी अविश्वासाच्या नावेत डोलु लागले।
पण आत्म्याने दिलेल्या कौलाने परत ते स्थिरावू लागले।
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